
Geeta Shlok on Mind Control: मन ही मित्र और शत्रु है
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श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक – मन ही मित्र और मन ही शत्रु
श्लोक:
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
(भगवद्गीता – अध्याय 6, श्लोक 5)
भावार्थ:
मनुष्य को स्वयं अपने द्वारा ही अपना उद्धार करना चाहिए। अपने आपको कभी गिराना नहीं चाहिए। क्योंकि स्वयं मनुष्य ही अपने लिए मित्र होता है और स्वयं ही शत्रु भी।
सरल व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि हमारा मन यदि नियंत्रण में है तो वह सबसे बड़ा मित्र है। लेकिन अगर यही मन विकारों और वासनाओं से ग्रस्त हो जाए, तो वह सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है। मन का स्वभाव चंचल होता है — उसे साधने के लिए साधना, संयम, और सत्संग की आवश्यकता होती है।
जीवन में प्रयोग:
- स्व-अनुशासन: अपनी दिनचर्या में कुछ समय ध्यान, जप या भक्ति के लिए निकालें।
- आत्मावलोकन: हर रात स्वयं से पूछें — क्या आज मन मेरा मित्र था या शत्रु?
- सकारात्मक संगति: सत्संग और ईश्वर-सेवा से मन नियंत्रित होता है।
BR Emporium का जुड़ाव:
हमारे जीवन में जब मन शांत होता है, तब ही हम भक्ति में गहराई से उतर पाते हैं। BR Emporium का हर प्रयास — चाहे वो भगवान के वस्त्र हों, पूजा के थाल हों या श्रृंगार सामग्री — उसी मन को एकाग्र करने का माध्यम है। जब भक्त साज-सज्जा के साथ अपने आराध्य को स्नान कराते हैं, वस्त्र पहनाते हैं या दीप जलाते हैं, वह केवल रिवाज नहीं, एक मानसिक साधना भी होती है।
निष्कर्ष:
भगवद्गीता का यह श्लोक हमारे भीतर ही छिपे उस युद्ध की बात करता है जो मन से जुड़ा है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्वयं के उद्धार के लिए कोई दूसरा नहीं आएगा — हमें स्वयं अपने मन को साधना होगा। और जब मन साधित होता है, तभी भक्ति, ज्ञान और सेवा का अनुभव सच्चा बनता है।